क्या मंदिरों के बड़े अनुष्ठानों में इतना धन व्यय करने से बेहतर नहीं होगा कि हम भूखे लोगों को भोजन कराएं ?

  

जी हाँ, किसी को भूख से पीड़ित देखना बहुत दुखदायी होता है ।

आध्यात्मिकता द्वारा हम में दया भाव का विकास होता है । यदि यह समाज भौतिकता के प्रति कम और आध्यात्मिकता के प्रति अधिक झुकाव रखेगा तो, सामान्यजन और राजकीय अधिकारियों में भी यह दयाभाव होने के कारण सभी अधिक से अधिक दान-पुण्य करेंगे । और साथ ही साथ भगवान के मंदिरों में उनकी वैभवशाली पूजा भी होगी ।

निर्धन एवं अभावग्रस्त लोगों का निश्चित ही ध्यान रखना चाहिए परन्तु क्या उनकी देखभाल और मंदिरों में वैभवपूर्ण पूजा-अर्चना परस्पर दो भिन्न विषय नहीं हैं ? क्या भगवान की पूजा वास्तव में निर्धन लोगों में भुखमरी का कारण है ? यदि हम वास्तव में भूखे लोगों के प्रति चिंता जताना चाहते हैं तो क्यों केवल मंदिरों को ही लक्ष्य बनाकर कोसते हैं ? उन लोगों को क्यों नहीं जो कीमती परिधानों और सुगन्धित इत्र खरीदने में ढेर सारा धन व्यय करते हैं । उनके महलों और बंगलों के बाहर भी कई निर्धन लोग भूखे रहते हैं । क्यों हम सिनेमाघरों, जुएखानों, शराब-बिक्रीकेन्द्रों, शराबखानों, घुड़दौड़ के मैदानों, शॉपिंग मॉलों, क्रिकेट या अन्य खेलों के स्टेडियम, जहाँ केवल मनोरंजन के लिए भारी मात्रा में धन व्यय किया जाता है, ऐसी जगहों पर यह प्रश्न नहीं पूछते ?

यदि इस धन का एक छोटा सा अंश भी इन अभावग्रस्त, भूख से पीड़ित लोगों के लिए प्रयोग किया जाये तो भुखमरी का समस्त पृथ्वी से सफाया किया जा सकता है । धार्मिक अनुष्ठानों को विशेष रूप से चुनकर इस प्रकार के आरोप लगाना, लोगों की भावना में संशय लाकर उनमे धर्म-विरोधी विचार उत्पन्न करता है । अगर देखा जाये तो भगवान का वैभवपूर्ण पूजन भुखमरी को जन्म न देकर कई प्रकार से उसे कम करता है । यह अनुष्ठान एक व्यापक आध्यात्मिक संस्कृति के महत्वपूर्ण अंग हैं जो लोगों में आत्म-संयम को प्रोत्साहित करते हैं । यदि लोग आध्यात्मिक संस्कृति का पालन करने लगें तो वे शाकाहारी हो जायेंगे । वे केवल अपनी जिह्वा की तृप्ति के लिए भगवान की अन्य संतानों – पशुओं – की हत्या नहीं करेंगे ।

इस प्रकार मात्र शाकाहारी भोजन अपना लेने से संसार में भुखमरी तीव्रता से घट जाएगी । कैसे?

meat-productionWine industry

थोड़ा सा माँस खाने के लिए जिन पशुओं का वध किया जाता है उनके लिए भारी मात्रा में चारे की व्यवस्था की जाती है । यदि लोग शाकाहारी बन जायेंगे तो वही भूमि जिसपर चारा उगाया जाता है वहां मनुष्यों के लिए अन्न उगाया जा सकता है । कई प्रकार के सर्वेक्षणों से पता चला है कि जितनी भूमि पर एक मांसाहारी व्यक्ति के खाने के लिए जो मांस उत्पन्न किया जाता है उतनी ही भूमि पर कम से कम तीन शाकाहारी व्यक्तियों के लिए अन्न उगया जा सकता है । 

यदि सभी शाकाहारी बन जाएँ तो संसार से भुखमरी समाप्त न भी हो परन्तु उसमे काफी हद तक कमी आ सकती है । उसी प्रकार यदि सभी प्रामाणिक आध्यात्मिक संस्कृति को अपनाते हैं तो वे शराब पीना भी छोड़ देंगे । शराब बनाने के लिए जो भूमि अन्न उगाने में उपयोग की जा सकती है उसपर गन्ने की खेती की जाती है । यदि लोग शराब पीना छोड़ दें तो यह सारी भूमि भूखे लोगों के लिए अन्न उत्पन्न में प्रयोग की जा सकती है । 

एक किसान, एक हेक्टेयर में कम से कम तीस लोगों को पुरे वर्ष भर अन्न, सब्जियां, फल, और अन्य खाद्य पदार्थ उपलब्ध करा सकता है परन्तु यदि उतनी ही भूमि अंडे, या मांस के लिए उपयोग में लायी जाये तो ५-१० लोगों का ही पोषण हो सकता है । (Pachauri, R.K., Chairman IPCC 08.09.08. “Global Warning!The Impact of meat production and consumption on climate change”.)

प्रश्न यह उठता है कि मांस खाते समय या शराब पीते समय हमें भिखारियों या भूखे लोगों की याद क्यों नहीं आती ।

Prasadam11

कई बार इसका कारण यह होता है कि हमारे मांस खाने और शराब पीकर उसका आनंद लेने की इच्छा बहुत प्रबल होती है । परन्तु आध्यात्मिक संस्कृति हमें उस से भी ऊँचे आनंद का आस्वादन करने में सक्षम बनाती है । यह आनंद हमें तुच्छ भौतिक आनंद की इच्छाओं, जैसे मांसाहार और शराब, से मुक्त होने का बल प्रदान करता है और इस प्रकार खाद्यान्न उत्पन्न करने के कई संसाधन बढ़ जाते हैं ।

इस प्रकार से धार्मिक अनुष्ठान या आध्यात्मिकता हमें व्यावहारिक रूप से भुखमरी कम करने में सहायता करते हैं ।

originally: https://hindi.iskcondesiretree.com/why-spend-in-temples-than-to-feed-hungry/

Post a Comment

0 Comments