धर्म-परिवर्तन क्यों हो रहा है और कैसे रोक जा सकता है ?

  

मदर टेरेसा को संत की उपाधि मिलते ही धर्म-परिवर्तन के विषय में चर्चा ज़ोरों पर है ।

यह बहुत ही दुखद तथ्य है कि अधिकतर धर्म या पंथ बाहरी दिखावे पर ही टिके हुए हैं । वह भी कट्टर धर्म-प्रचारकों की इस कल्पना पर कि भगवान केवल उनके ही हैं और भगवान की कृपा केवल वे ही लोग बाँट रहे हैं ।

अक्सर इस बाहरी दिखावे वाली धार्मिक अनुभूति के कारण, उन्हें अपनी भक्ति से अधिक इस बात में सफलता और सुरक्षा का एहसास होता है कि हमने कितने लोगों को अपने पंथ से जोड़ दिया, जो कि एकमात्र सच्चा पंथ है । इस कारण वे लोगों को विभिन्न तरीकों से अपने पंथ में लाने के लिए लुभाते हैं, जो अंततः उन्हें आतंरिक रूप से संरक्षित भावना एवं बाहरी रूप से राजनैतिक बल प्रदान करता है ।

वास्तविक आध्यात्मिक प्रगति तब होती है जब लोग भौतिकतावादी से परिवर्तित होकर अध्यात्मवादी बन जाएँ, वे सांसारिक वस्तुओं से आसक्ति छोड़कर भगवान की भक्ति में लग जाएँ । यह वास्तविक परिवर्तन होता है ।

परन्तु जब लोग भौतिक लाभ के लिए धर्म-परिवर्तन करते हैं तो यह मूर्खतापूर्ण है । धर्म परिवर्तन के पहले भी वे भौतिक-आसक्ति से परिपूर्ण थे और धर्म-परिवर्तन के बाद भी वे वैसे ही रहे, मात्र धर्म का पट्टा बदल गया, बस ।

इस प्रकार एक ब्रांड की भौतिक आसक्ति से परिवर्तित होकर दूसरे ब्रांड की आसक्ति अपना लेने से, न तो परिवर्तन करने वाले का आध्यात्मिक रूप से कुछ भला होता है न परिवर्तित होने वाले का । वास्तव में इस प्रकार से परिवर्तित किये गए लोगों में अपने पूर्व-धर्म के प्रति द्वेष की भावना भर दी जाती है, जो अंततः सामाजिक एवं पारिवारिक समरसता को अस्त-व्यस्त कर देती है । धर्म-परिवर्तन द्वारा लोगों के मन में दूसरे धर्मों के प्रति द्वेष भरकर उनसे अपना राजनैतिक प्रयोजन साधना एक आम बात हो गयी है । धर्म-परिवर्तन की यह कड़ी किस हद तक जा सकती यह समझ पाना साधारण भोले-भाले लोगों की समझ के परे होता है । उन्हें तो मात्र सुलभ जीवन और सरल भौतिक-इन्द्रियतृप्ति से बढ़कर कुछ नहीं चाहिए होता ।

दूसरी ओर यदि लोगों में भगवान और धार्मिक धरोहर के प्रति प्रेम और ज्ञान ही न हो तो वे न तो स्वयं उसका पालन करेंगे और न ही प्रोलोभनों द्वारा धर्म-परिवर्तन करने वाले दुष्ट धर्मोपदेशकों का विरोध करेंगे ।

इस प्रकार के धर्म-परिवर्तन करने वालों की तुलना में ऐसे भी धर्मनिष्ट व्यक्ति हैं जो दूसरे धर्म के सच्चे अनुयायियों से प्रेरणा लेते हैं । उन्नीसवीं सदी के वैष्णव संत-शास्त्रज्ञ, श्रील भक्तिविनोद ठाकुर अपनी उदार-प्रवृत्ति इस प्रकार व्यक्त करते हैं : “जब हम किसी दूसरे धर्म के पूजास्थल पर उनकी पूजा के समय पहुंचें तो हमें यह विचार करते हुए आदरपूर्वक वहां रुकना चाहिए: “मेरी पूजा-पद्धति से भिन्न रूप में मेरे सर्वोच्च भगवान यहाँ पूजे जा रहे हैं । इस भिन्न पूजा-पद्धति को मैं पूर्णतया समझ नहीं पा रहा, परन्तु इसे देखकर अपनी पूजा-पद्धति के प्रति मेरा आकर्षण बढ़ गया है । भगवान एक ही हैं । मैं उनके प्रतिक-चिन्ह के समक्ष यह समझकर नतमस्तक होता हूँ कि वे इस रूप में मेरी प्रार्थना स्वीकार कर लें ताकि मेरा प्रेम उनके उस स्वरुप के लिए अधिक बढ़ जाये जिस स्वरुप से मुझे लगाव है ।”

इसलिए श्रील प्रभुपाद कहा करते थे, “हम यदि भगवान के पास दैनिक भरण-पोषण के लिए जाते हैं तो यह हमारा उस भरण-पोषण से प्रेम दर्शाता है, नाकि भगवान से ।” वैदिक शास्त्रों के अनुसार भगवान को सही मायने में समझने और पाने के लिए हमें उनके नाम का जप करना चाहिए, जिस से हम तुच्छ भौतिक प्रलोभनों से बच जायेंगे । श्रील प्रभुपाद ने इसी प्रकार सम्पूर्ण विश्व में अकेले घूम-घूमकर शुद्ध भक्ति का प्रचार किया तथा अनेक लोगों को भगवान से प्रेम करना सिखाया ।

आजकल हर धर्म के लोगों के वास्तविक आनंद रूपी धन को लूटने वाला एकमात्र शत्रु है : नास्तिक भौतिकतावाद ।

श्रील प्रभुपाद कहते हैं, “धर्म का सार है भगवान को समर्पण करना । आप किसी भी धर्म का पालन कीजिये परन्तु सार यही है कि उन्हें समर्पण करना है । यदि आप केवल इन्द्रियतृप्ति के विषय में ही विचार करेंगे तो धर्म कहाँ है ? आज-कल स्थिति ऐसी ही है । इन्द्रियतृप्ति में लिप्त होने के कारण किसी को वास्तविक धर्म का ज्ञान ही नहीं है । धर्म का सार है भगवान को समर्पण । अब यदि आप को यही नहीं पता की भगवान कौन हैं तो आप समर्पण किसे करेंगे ? इसलिए पहले उन्हें जानने का प्रयास करना चाहिए । इस प्रकार धीरे-धीरे हम उन्हें जानकर समर्पित हो सकते हैं ।

हाँ, धर्म-परिवर्तन होना चाहिए परन्तु ऐसा जिससे लोग भगवान की भक्ति एवं समर्पण रूपी वास्तविक आनंद का आस्वादन कर सकें । इसलिए सभी धर्मावलंबियों को सबसे पहले अंदर झांककर अपने धर्म में वर्णित आध्यात्मिक सार को समझना चाहिए । इस प्रकार जब वे स्वयं को परिवर्तित कर चुके होंगे तो वही आध्यात्मिक सार वे बाहर भी साझा करेंगे और अंततः स्वयं तथा संसार का भला हो सकेगा ।

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