क्या आपको आत्मा और शरीर के बीच अंतर पता है ?
भगवद्गीता का नौवां अध्याय विद्याओं का राजा (राजविद्या) कहलाता है, क्योंकि यह पूर्ववर्ती व्याख्यायित समस्त सिद्धान्तों एवं दर्शनों का सार है | भारत के प्रमुख दार्शनिक गौतम, कणाद, कपिल, याज्ञवल्क्य, शाण्डिल्य तथा वैश्र्वानर हैं | सबसे अन्त में व्यासदेव आते हैं, जो वेदान्तसूत्र के लेखक हैं | अतः दर्शन या दिव्यज्ञान के क्षेत्र में किसी प्रकार का अभाव नहीं है | भगवान कहते हैं कि यह नवम अध्याय ऐसे समस्त ज्ञान का राजा है, यह वेदाध्ययन से प्राप् ज्ञान एवं विभिन्न दर्शनों का सार है | यह गुह्यतम है, क्योंकि गुह्य या दिव्यज्ञान में आत्मा तथा शरीर के अन्तर को जाना जाता है | समस्त गुह्यज्ञान के इस राजा (राजविद्या) की पराकाष्टा है, भक्तियोग |
पद्मपुराण में मनुष्य के पापकर्मों का विश्लेषण किया गया है और दिखाया गया है कि ये पापों के फल हैं | जो लोग सकामकर्मों में लगे हुए हैं वे पापपूर्ण कर्मों के विभिन्न रूपों एवं अवस्थाओं में फँसे रहते हैं | उदाहरणार्थ, जब बीज बोया जाता है तो तुरन्त वृक्ष नहीं तैयार हो जाता, इसमें कुछ समय लगता है | पहले एक छोटा सा अंकुर रहता है, फिर यह वृक्ष का रूप धारण करता है, तब इसमें फूल आते हैं, फल लगते हैं और तब बीज बोने वाले व्यक्ति फूल तथा फल का उपभोग कर सकते हैं | इसी प्रकार जब कोई मनुष्य पापकर्म करता है, तो बीज की ही भाँति इसके भी फल मिलने में समय लगता है | इसमें भी कई अवस्थाएँ होती हैं | भले ही व्यक्ति में पापकर्मों का उदय होना बन्द हो चुका को, किन्तु किये गये पापकर्म का फल तब भी मिलता रहता है | कुछ पाप तब भी बीज रूप में बचे रहते हैं, कुछ फलीभूत हो चुके होते हैं, जिन्हें हम दुख तथा वेदना के रूप में अनुभव करते हैं |जैसा की सातवें अध्याय के अट्ठाइसवें श्लोक में बताया गया है जो व्यक्ति समस्त पापकर्मों के फलों (बन्धनों) का अन्त करके भौतिक जगत् के द्वन्द्वों से मुक्त हो जाता है, वह भगवान् कृष्ण की भक्ति में लग जाता है | दुसरे शब्दों में, जो लोग भगवद्भक्ति में लगे हुए हैं, वे समस्त कर्मफलों (बन्धनों) से पहले से मुक्त हुए रहते हैं | इस कथन की पुष्टि पद्मपुराण में हुई है –
जो लोग भगवद्भक्ति में रत हैं और उनके सारे पापकर्म चाहे फलीभूत हो चुके हो, सामान्य हों या बीज रूप में हों, क्रमशः नष्ट हो जाते हैं | अतः भक्ति की शुद्धिकारिणी शक्ति अत्यन्त प्रबल है और पवित्रम् उत्तमम् अर्थात् विशुद्धतम कहलाती है | उत्तम का तात्पर्य दिव्य है | तमस् का अर्थ यह भौतिक जगत् या अंधकार है और उत्तम का अर्थ भौतिक कार्यों से परे हुआ | भक्तिमय कार्यों को कभी भी भौतिक नहीं मानना चाहिए यद्यपि कभी-कभी ऐसा प्रतीत होता है कि भक्त भी सामान्य जनों की भाँति रत रहते हैं | जो व्यक्ति भक्ति से अवगत होता है, वही जान सकता है कि भक्तिमय कार्य भौतिक नहीं होते | वे अध्यात्मिक होते हैं और प्रकृति के गुणों से सर्वथा अदूषित रहते हैं |
कहा जाता है कि भक्ति की सम्पन्नता इतनी पूर्ण होती है कि उसके फलों का प्रत्यक्ष अनुभव किया जा सकता है | हमने अनुभव किया है कि जो व्यक्ति कृष्ण के पवित्र नाम (हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे, हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे) का कीर्तन करता है उसे जप करते समय कुछ दिव्य आनन्द का अनुभव होता है और वह तुरन्त ही समस्त भौतिक कल्मष से शुद्ध हो जाता है | ऐसा सचमुच दिखाई पड़ता है | यही नहीं, यदि कोई श्रवण करने में ही नहीं अपितु भक्तिकार्यों के सन्देश को प्रचारित करने में भी लगा रहता है या कृष्णभावनामृत के प्रचार कार्यों में सहायता करता है, तो उसे क्रमशः आध्यात्मिक उन्नति का अनुभव होता रहता है | आध्यात्मिक जीवन की यह प्रगति किसी पूर्व शिक्षा या योग्यता पर निर्भर नहीं करती | यह विधि स्वयं इतनी शुद्ध है कि इसमें लगे रहने से मनुष्य शुद्ध बन जाता है |
श्रीमद्भागवत के इस श्लोक में (१.५.२५) नारद जी अपने शिष्य व्यासदेव से अपने पूर्वजन्म का वर्णन करते हैं | वे कहते हैं कि पूर्णजन्म में बाल्यकाल में वे चातुर्मास में शुद्धभक्तों (भागवतों) की सेवा किया करते थे जिससे उन्हें संगति प्राप्त हुई | कभी-कभी वे ऋषि अपनी थालियों में उच्छिष्ट भोजन छोड़ देते और यह बालक थालियाँ धोते समय उच्छिष्ट भोजन को चखना चाहता था | अतः उसने उन ऋषियों से अनुमति माँगी और जब उन्होंने अनुमति दे दी तो बालक नारद उच्छिष्ट भोजन को खाता था | फलस्वरूप वह अपने समस्त पापकर्मों से मुक्त हो गया | ज्यों-ज्यों वह उच्छिष्ट खाता रहा त्यों-त्यों वह ऋषियों के समान शुद्ध-हृदय बनता गया | चूँकि वे महाभागवत भगवान् की भक्ति का आस्वाद श्रवण तथा कीर्तन द्वारा करते थे अतः नारद ने भी क्रमशः वैसी रूचि विकसित कर ली | नारद आगे कहते हैं –
ऋषियों की संगति करने से नारद में भी भगवान् की महिमा के श्रवण तथा कीर्तन की रूचि उत्पन्न हुई और उन्होंने भक्ति की तीव्र इच्छा विकसित की | अतः जैसा कि वेदान्तसूत्र में कहा गया है – प्रकाशश्र्च कर्मण्यभ्यासात् – जो भगवद्भक्ति के कार्यों में केवल लगा रहता है उसे स्वतः सारी अनुभूति हो जाती है और वह सब समझने लगता है | इसी का नाम प्रत्यक्ष अनुभूति है |
यहाँ कहा गया है कि भक्ति शाश्र्वत है | यह वैसी नहीं है, जैसा कि मायावादी चिन्तक साधिकार कहते हैं | यद्यपि वे कभी-कभी भक्ति करते हैं, किन्तु उनकी यह भावना रहती है कि जब तक मुक्ति न मिल जाये, तब तक उन्हें भक्ति करते रहना चाहिए, किन्तु अन्त में जब वे मुक्त हो जाएँगे तो ईश्र्वर से उनका तादात्म्य हो जाएगा | इस प्रकार की अस्थायी सीमित स्वार्थमय भक्ति शुद्ध भक्ति नहीं मानी जा सकती | वास्तविक भक्ति तो मुक्ति के बाद भी बनी रहती है | जब भक्त भगवद्धाम को जाता है तो वहाँ भी वह भगवान् की सेवा में रत हो जाता है | वह भगवान् से तदाकार नहीं होना चाहता |
जैसा कि भगवद्गीता में देखा जाएगा, वास्तविक भक्ति मुक्ति के बाद प्रारम्भ होती है | मुक्त होने पर जब मनुष्य ब्रह्मपद पर स्थिर होता है (ब्रह्मभूत) तो उसकी भक्ति प्रारम्भ होती है (समः सर्वेषु भूतेषु मद्भक्तिं लभते पराम्) | कोई भी मनुष्य कर्मयोग, ज्ञानयोग, अष्टांगयोग या अन्य योग करके भगवान् को नहीं समझ सकता | इन योग-विधियों से भक्तियोग की दिशा किंचित प्रगति हो सकती है, किन्तु भक्ति अवस्था को प्राप्त हुए बिना कोई भगवान् को समझ नहीं पाता | श्रीमद्भागवत में इसकी भी पुष्टि हुई है कि जब मनुष्य भक्तियोग सम्पन्न करके विशेष रूप से किसी महात्मा से श्रीमद्भागवत या भगवद्गीता सुनकर शुद्ध हो जाता है, तो वह समझ सकता है कि ईश्र्वर क्या है | इस प्रकार भक्तियोग या कृष्णभावनामृत समस्त विद्याओं का राजा और समस्त गुह्यज्ञान का राजा है | यह धर्म का शुद्धतम रूप है और इसे बिना कठिनाई के सुखपूर्वक सम्पन्न किया जा सकता है | अतः मनुष्य को चाहिए कि इसे ग्रहण करे |
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